मंगलवार, 18 सितंबर 2012

भ्रम..

यह मेरा भ्रम ही था
कि
दिल के किसी कोने मे
पला हुआ   यह
 पहला अहसास
कि
शायद हलकी सी
मासूमियत
 तुम्हारे
कोने  मे भी है
पर लगता है
अब
जिन्हें
मे अपना समझ
कर पालता चला गया
वोह शायद जन्मे ही नहीं  थे
 बस एक सुब्गुआहत   थी 
जो 
तुम्हारे
 दिल के कठोर धरातल पर टूट चुकी  थी..





गुरुवार, 1 सितंबर 2011

फिर वही.... ..याद आई


(1)
दिल ने
सब सिकवे गिले..
छोड़ के
फिर यही पुकारा ..
माना
कि
तुम्हारी निगाहों मे..
यह रिश्ता कुछ भी नहीं..
पर
कुछ के लिये
तो
यही कायनात है
और
शायद
इस लिये
आज का दिन उनके लिये
बहुत खास है...

(2)
आरजू
के
लफ्ज़ ओढ के
वोह
जिंदिगी के फलक पर
कतरा कतरा
युही रिसता रहा..
शायद
किसी मोड़ पर
जिंदिगी की सुबह
हो जाये

गुरुवार, 30 जून 2011

बारिशै ...


यह बारिशै भी कितनी अजीब है
जो
यहाँ वहा से आकर बैठ जाती है
वोह बारिश...
जब तुम इस जिंदिगी से निकल कर
नयी मंजिल को गयी थी..
कैसे इस रूह को भीगा के गयी थी.
पर..
आज
न जाने
कितने बरस के बाद भी..
इसी दिन..इसी समय
ऑफिस के
चौथे माले की
खिड़की से झाक कर देखा है
बारिशै आज भी है..

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

....और वैलेंनटाइन मन गया


तुमको देखा,
तुमको सोचा,
....और वैलेंनटाइन मन गया

एक चाहत थी कुछ तुमसे जानने की,
एक हसरत थी तुम्हारी निगाहों मे
अपने अस्क की,
उस चाहत को दबाता चला गया,
....और वैलेंनटाइन मन गया

महफ़िल मे तू रुसवा न हो,
बात दिल की जवा पर न आ जाये,
उन होठो को सिलता चला गया,
....और वैलेंनटाइन मन गया

गर कही वोह पढ़ लेगी लफ्ज़- ए- आरजू ,
इसलिय य़ूही कुछ लिखता चला गया,
....और वैलेंनटाइन मन गया

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

यू ही ...कुछ लम्हे ...


(१)
यह चार दिनों की जिंदिगी...
जिस मे कुछ तुम्हारी यादे,
इक धरकता दिल..
न उम्मीदी की किरण,
और
इक अंतहीन इंतजार...

(२)
यह शायद प्यार ही था ...
जो आज भी खीच लाता है
उसकी
आँखों मे नमी का अहसास ..
किसी महफ़िल मे तेरा जिर्क
सुनने का बाद..

(३)
कुछ बरबादिया इस
कदर उसके दामन
मे आ बैठी
कि
बस तुम से दिल लगा बैठे
बाकी अपने आप मुकम्मल ही गयी..

(४)
क्यू गाहे बगाहे
पालते हो
यह हसरते
कि
उनके
इश्क का दीदार हो जाये
यह आजकल कि हवा है जानशी..
जो मुसल्मा को भी काफ़िर बना जाये ...

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

बदलाव


वोह भी क्या दिन थे
क़ि
उनके खासने की जरा सी आहट
उसकी सासों को गहरा जाती थी
कुछ अनहोनी की
आकांशा
दिल की धरकनो को
बढ़ा जाती थी
आज
यह हालात है
कि
अगल - बगल पड़े हुअ
एक छत के नीचे
अलार्म की घडी उनकी रूह को झन्झोडती है!

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

अपाहिज...



उनकी सिर्फ यही खता थी
कि
वोह उनको बेइन्तेहा
प्यार करते थे ,
उनसे
उनका कुछ दिल का रिश्ता था,
कभी-कभी
वोह
ऐसा कहा करते थे
पर
बदले मे
उनको
कुछ भी नसीब न हुआ
उसने उनकी चाहत को
कभी
संजीद से न लिया
क्यों कि
शायद
हर इकतरफा रिश्ता अपाहिज होता है