बुधवार, 30 दिसंबर 2009

हालात...



कुछ हालात हमारे ऐसे थे
कुछ चाहत तुम्हारी ऐसी थी
जिसे न तुम समझ सके
न हम कह सके
जिंदिगी बस यूही चलती रही
जैसे
समुंदर की मौजे चट्टान से
बार बार टकरा कर
बापिस लौट जाती है
और
किसी के
एक तरफ़ा प्यार
की याद दिला जाती है

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

ऐसा क्यों होता है


ऐसा क्यों होता है
किसी को
सब कुछ मिलता है
और कोई
कुछ पाने के लिये
जिंदिगी भर तरसता है

किसी को मिलती है
जिंदिगी के
हर मोड पर सफलताये
और कोई
विफलता का दमन पाता है
और टूट जाता है,

अगर यह सब
भाग्य के कारण है
तो फिर
कर्म का कर्तव्य
किस के कारण है
जिंदिगी को इतनी आसान
न समझाना
काटो की डगर है,
सम्हल के चलना,
चड़ना और गिरना,
तो जिंदिगी का पाठयक्रम है,
पर
कोई चढ़ ही न सके,
तो फिर यह किस के कारण है,

जिंदिगी...
तो बस ऐसी ही चलती रहेगी
हर मोड़ पर
जीने की क़ज़ा देती रहेगी
इतना तरसेगा कुछ पाने के लिये
कि
कुछ खोने की आस ही न रहेगी,

प्यार, मोहब्बत, दया ,धरम
कर्तवय , सच्चाई ,इंसानियत,

आज कल की जिंदिगी मे
कभी-कभी
भरे पेट की बाते लगती है,
क्यों कि
कभी कभी
इन बातो को समझने वाला
दुनियादारी की नासमझी वाला
सब कुछ जानते हुई भी,
इन बातो पर चलता है
ऐसा क्यों होता है
ऐसा क्यों होता है

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

कुछ....



कुछ तुम्हारी यादों के तसुब्बर ना हो,
कुछ तुम से मिलने की चाहत ना हो,
कुछ बीते हुएं लम्हों की कसक साथ ना हो,
कुछ मुकद्दर का गम- ए- इजहार ना हो
कुछ तन्हाई में यादों का मंजर ना हो,
कुछ तुम्हारी इजहार - ए - मोहब्बत की तमन्ना ना हो,
कुछ यह रिश्तो की सिर्फ रस्म अदायगी ना हो,
कुछ घिसकती, सिसकती जिंदिगी की आहटं ना हो,
तो
यह दिल खाली- खाली सा लगता है,
और
यह जिंदिगी भरी- भरी सी लगती है,
वाह रे इश्क,
यह तेरी ही कजां है कि,
सब कुछ लुटा के तुझ पर ही,
तुझ से ही मिलने की आस किया करते है
जिस न तुम समझ सकें
न हम समझ सकें,
जिंदिगी सिर्फ फानुसं की तरह
सिर्फ जलती ही रही,
सिर्फ राख़ के ढेर पर
बैठे इस इन्तजारं मे
कुछ तो
कभी तो
तुम भी कुछ कहोगें

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

खट्टी - मीठी


ना मालूम था कि
कुछ दौर
जिंदिगी में ऐसें भी आयेंगें
कि
कुछ दीवारे उन दोनों
के दरमिंया ऐसी बढती जायेंगी
जैसें पूनम का चाँद
जिंदिगी सिर्फ
रस्म अदायगी ही भर रह जायेंगी
अपनी घिसी- पिटी
लकीरों पे
रेंगती हुई
सिसकती हुई
जिसमे न खुशी है
न अपनापन
है तो बस
सूनी सी
निस्तभ खामोशी,
और
आकाश को
चीरता वीरानापन
पर
जिंदिगी तो मात्र जिंदिगी ही है
कुछ की खट्टी
कुछ की मीठी

शनिवार, 29 अगस्त 2009

बस यूं ही...


बस यूं ही
कई बार
मेरें कदम जिंदिगी के
कुछ मोड पर यूं ही रुक जातें है
यह सोच कर
कि
शायद कही दिख जाओ कही,
कई बार तुम्हारी कालोनी के बाहर
यूं ही खडा हो जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद कार चलाती दिख जाओ कही,

कई बार उन साइबर कैफे पर यूं ही रुक जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद कही चैट करती दिख जाओ कही,
उन दिनों चैट- चैट मे शोर्ट इंग्लिश सीखी थी तुमसे
जिसे एस-ऍम-एस अंग्रजी का नाम दिया था तुमने,

कई बार साडीयौ की शॉप पर बस यूं ही रुक जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद " मेरा वाला पिंक" खोजती दिख जाओ कही,
उन दिनों वेस्टर्न ड्रेस के रूटीन के बीच मे
काली ड्रेस पहन कर
खुले बालो मे चहकती फिरती थी,
आज खामोशी की कालिमा सुनाई देंती है,

कई बार ज्वेल्लर्स की शॉप पर बस यूं ही खडा हो जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद ज्वल्लेरी पसंद करती दिख जाओ कही,
गोल्ड तुमको बहुत पसंद था न...
आज कल सुनहरी चमक भी धुधली दिखाई देंती है

कई बार बाज़ार मे बस यूं ही खडा हो जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद कही गोलगप्पे खाती दिख जाओ कही
उन दिनों तेज मिर्ची की चाट खा कर
बार बार पानी पीती फिरती थी

क्या अब भी वैसी ही हो.....

मेरा सब कुछ तो वक़्त के सुमंदर मे
डूब गया
रहा गयी है तो बस
तन्हाई के रेत पर तुम्हारी यादो के निशां...

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

इन्तजार...



जब से तुम यह जहाँ
छोड़ के नयी दुनिया
मे गयी हों,
पर जानें अनजाने एक
अहसास दे गयी हो,
जो
हर पल साथ रहता है ,
शुक्रगुजार हूँ तुम्हारा
कि
कम से कम
यह अहसास तो मेरें पास है,
सिर्फ इस इन्तजार मे
कि
शांयद
तुम भी कही से कहोगी
हां
यह अहसास मेरी
धडकनो मे धडकता है
तुम से मिलूं या न मिलूं
पर मुझ को भी तनहा करता है
जाने अनजानें

मैनें भी महसूस किया है,
अपनी जिंदिगी के किसी कोने मे

उन लम्हों को जिया है
यदि ऐसा हुआ तो....
सारी क्यानांत खडी हो जायगी
इन धरकनो की नज्म फलक पे चमक जायगी

शनिवार, 1 अगस्त 2009

हँसरतें....



न जाने कब ये नजरें उनसे मिली,
न चाहतें हुएं कुछ हँसरतें दिल में खिली,

दिमाग ने कहा..

इन हँसरतों का कोई मोल नहीं,
जो तुने कह दिया वोह उन्होंने सुना ही नहीं,


पर दिल ने कहा...

इन हँसरतों पे मेरा जोर ही नहीं,
बहुत कोशिश की मिटाने की पर मिट न सकी,
इस में रंग की लालिमा
मेरें खुद के लहु ने दी है,
मेरें खुदं के किसी कोने मे यह
पली बढ़ी है,
कब इनके पर लग गयें
पता ही न चला,
कब यह इनमे उनका
पलछिन देखने लगीं
पता ही न चला,


दिमाग ने कहा..

लगीं को कौन मिटा सकता है,
हालत इन हँसरतों की उन्हे कौन बता सकता है,
यह खामोश लफ्ज़ उन्हे कौन सुना सकता है,
जब कि
तेंरीं इस हालत का उन्हे कोई इल्म ही नहीं,


पर फिर कहता हूँ..

छोड़ सकें तो समुंदर में डुबो आ,
आग पानी मे भी लगे तो लगा आ,


क्यों कि,

यह हँसरतें कब तेरी चाहत बन जायेंगी,
इस दिल को ता उम्र का रोग दे जायेंगी,
तन्हाई में उनकी यादे बन सतायेंगी,
आँखों के रास्ते
बार बार अपनां अहसास दिलायेंगी,


पर दिल न माना.......

आज उनकें रास्ते पर अपनी कब्र में दफ़न बैठां है


हँसरत - इच्छा

सोमवार, 27 जुलाई 2009

जन्मपत्री...


वों बहुत परेंशां थे ,
अपने लड़के की
जिंदिगी के भविष्य के वारें मे,
गर उन्होंने लड़के की जिंदिगी
खोजतें वक़्त
करीब सौ से ज्यादा
प्रपोजलं में
अन्य चीजो
के अलावा
जन्मपत्री को तवज्जौं दी,
नतीजन...
आज दोनों शखसं
जिंदिगी के
दोनों पाटों
पर खड़े हुऐ
अपनी अपनी
जिंदिगी के
फलसफे बांच रहे है
और बीच मे बह रही है
उन दोनों की
जन्मपत्री...


चलते- चलते...

न दोस्ती मिली न वफ़ा मिली,
न जानें क्यों यह जिंदिगी हमसे खफा मिली,
कांधे पर लादे हुएं इसको हम तो ढ़ोतें जाते है,
वह कौन सी गैरतं थी जिसकी हमको सजा मिली ,

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

खेल..



जिंदिगी का खेल,
अजीब खेल,
सब खेलते हँ,
कुछ जीतते हँ,

अपनी निगाहं में,
लोंगो कि निगाहं में,
समाज कि निगाहं में,

कुछ हारते हँ,

जो जीतते हँ
अपनी दुनिया सजातें हँ,
अपनी रागिंनी पर दुनिया को
नचाते हँ,

पर वों जो हारते हँ,
वों अपने आंगन को सवारते हँ,
उनके लिये कोई नहीं रोता,
उनके लिये किसी के दिल का कोई
कोना नहीं धडकता,

वों बन जाते हँ,
अंतहीन , अंतर्मुखी सामान,
और जिंदिगी की भीड़ मे
अकेलेपन के निशां,
वो "आम आदमी"
बन कर चले
जाते हँ,
और गुमनामी की
जिंदिगी बिता जाते हँ,
क्यों कि
इस बेत्कलुफ़, बेजुबांन दुनिया मे,
प्रणाम उगतें सूरज को ही होता हँ,
प्रणाम उगतें सूरज को ही होता हँ,

बुधवार, 15 जुलाई 2009

खामोशी...


(१)
कुछ लफ्ज़
जो मैंने खुदं ही
खोज लिए थे
तुम्हारी खामोशी
में ,

कुछ रिश्ते
जो मैंने खुदं ही
बुन लिए थे
तुम्हारी आँखों की चमक
में ,

कुछ सुर
जो मैंने खुदं ही सुन लिए थे
जो तुमने कहे हीं नहीं
थे

सचमुच...
यह
कभी कभी
के अच्छे
इत्ते फांक

अभी दफना के
लौटा हूँ

पर यह यादे
मेरी
नासमझी
पर हसतीं है


(२)
छोड़ कर
जब तुम
अपनी मंजिल की तरफ
जैसें जैसें
कदम
बढाओगें
कुछ यादे
हमारी जिंदगी के
साये से
लिपट-लिपट
कर सिर्फ यही पूछेगीं
कि बता
मेरी खता क्या है
मेरी खता क्या है

बुधवार, 8 जुलाई 2009

रुख़सत...



कुछ लोग,
जो आपके वर्तमान,
से रुखसत हो जाते है,
पर अतीत को समातें हुएं
यादो में चले आते हें,
वोह
हर पल ,
हर जहां मे
ऐसे समां जाते हें,
कि
दिल की ढ़ियोड़ीं से,
चाह कर भी,
रुखसत नहीं हो पातें हें,
वही चलते चलते,
कुछ मोड,
जिंदिगी के,
उन यादो को
गुजरते देख कर
यही कहं पाते हें,
कि
क्यों उन्हें,
रुख़सत होने
के लिए
मेरी ही गली मिली.

रुख़सत = विदा

शनिवार, 4 जुलाई 2009

स्त्री...स्त्री...स्त्री…


क्या जीवन हें स्त्री का
जो टुकडो में बटां होता है ,
पत्नी , बेटी और,
माँ के रूप में,
बार बार परिलषित होता हें,

अपने आधे जीवन में वह,
बाबुल की बगिया महकाती है,
उसकी एक हँसी ,
उसकी एक मुस्कान,
घर की खुशिया बढाती है

पापा की वोह लाडली होती है,
मम्मी की वोह दुलारी होती है
हँसना , खेलना ,
सखियों से बतियाना ,
बेंफिक्र , अलमस्त सी होती है,

और एक दिन यह दुनिया छोड़ के,
वोह किसी और की चाहत बनती हें,
लाखो सपने, लाखो वादें
छोड़ के वोह,
किसी और का
आंगन महकाती है,

कुछ नहीं लेती वोह किसी से,
कच्ची मिटटी सी होती हें,
प्यार की पौध को
दिल में लगा के,
सेंज़ पिया की संवारती है,

यह टुकडों में बटां जीवन ही,
उसकी जनम भर की पूँजी होता है,
कभी बेटी , कभी पत्नी,
कभी माँ बन के,
वोह जीवन पुरुष का
सार्थंक करती है,

ओंस की बूदँ सी होती है स्त्री,
हर रूप में ढल जाती है,
स्पर्श कोमल हो
तो नीर सी बहेंगी,
और खुरदरा हो तो
पत्थर सी बन जाती है स्त्री,

विधि का विधान है यहीं,
जीवन की नियति है यहीं,
पुरुष तो बस एक पुतला है मानो ,
उसका जीवन,
कभी बेटी बन कर,
कभी पत्नी बन कर,
कभी माँ बन कर,
संवारती है स्त्री,

यही जीवन है स्त्री का,
जो टुकडो में बटां होता है,
यही जीवन है स्त्री का,
जो टुकडो में बटां होता है,

मंगलवार, 30 जून 2009

क्यों ..


क्यों किसी से इतना प्यार हो जाता हेँ ,
क्यों किसी के बिना जीना दुश्वार हो जाता हेँ
पल पल तरसते हेँ उनकी एक निगाह को,
क्यों किसी अजनबी पे एतबार हो जाता हेँ,

अब पता चला कि प्यार क्या होता हेँ,
क्यों आंखे तरसती हेँ उनके एक दीदार को,
क्यों धरती ताकती हेँ अस्मां को,
क्यों नदिया मिलती हेँ सागर में ,
क्यों जब भी तनहा होते हेँ,
उन्हें हम याद करते हेँ,

मत जाओ हम छोड़ के कि
शायद हम जी न पाए,
हम यह भी नहीं कहे सकते
कि आप अ़ब पराये हो,
पढना चाहों तो हमारी आंखे
पढ़ लो जो शायद आपको
दास्ताँ - ए- दिल ब्यां कर दे,

कितने मुश्किल थे वोह पल,
जिनमे अहसास हुआ कि ,
आप दूर चले गए हो,
कितने कठिन थे वोह लम्हें
जो कहे रहे थे कि
अब आप पराये हो
इस गैर जहाँ में मिलना
जरुरी तो नहीं,
यह सपने तो मेरे
अपने हेँ ,
आकर मिल जाया करो..

रविवार, 28 जून 2009

कुछ पल ....


जो दिल में रहते हें वो जुदां नहीं होते,
कुछ अहसास लफ्जों में ब्यां नही होते,
कितने बार सोचा उन्हें न याद करे हम,
पर वो जब याद आते हें ,बहुत यादे आते हेँ

यह शर्मीली मुस्कान हमारी कमजोरी हेँ,
आप समझ न सके यह हमारी मज़बूरी हेँ,
हम नहीं समझतें आपकी इस खामोशी को,
आपकी खामोशी को भी जुबान जरुरी हेँ,

कुछ राज किसी को बताये नहीं जाते,
कुछ ज़ख्म किसी तो दिखाए नहीं जाते,
कितने यादे आते हेँ कैसे बताये आपको,
कुछ राज होठों पर लाये नहीं जाते,

शनिवार, 27 जून 2009

वोह लम्हें ... वोह लम्हें.... वोह लम्हें .....




वोह लम्हें,
जब शून्य सी खामोशी में,
कुछ जज्बातों ने,
उचक कर ,
अपने चाँद के मन को
छूने कीं
कोशिश कीं थी,
और चाहा था ,
उस भीगती , सुनहरी,
चांदनी के प्यार कीं,
कुछ बुँदों
का अहसास ,
अपनी अगली जिंदिगी ,
के आंचल में ,

वोह लम्हें,
आज भी जिन्दा हेँ,
अपने माझी कीं
आँखों कीं चमक
को पढनें में,
उसके होठों कीं
खामोशी को ,
समझनें कीं कोशिश में,
जिंदिगी के
इक मोड पर,
खडें हुए,
इस इन्तजार में,
काश उन्होंने ,
एक बार तो कहा होता,
एक बार तो कहा होता,

वोह लम्हें...

शुक्रवार, 19 जून 2009

कभी - कभी…..


कभी - कभी,
रात जब पूरे उफांन पर होती हेँ,
और दुनिया नींद के आगोश में सोती हेँ,
कुछ
अलसाई सी , मुरझाई सी ,
आंखो में
एक खबाब ......,
जागा सा मिलता हेँ,
वोह
जितनी दूर,
यादो को, समुंदर की लहरों में,
डुबो के आता हेँ,
सुबह,
मुई यादे ,
तकिये के सिरहाने ,
मिलती हेँ,



कभी - कभी,
सर्द रात में,
जब हड्डियों को ठिठुरने बाली,
ठण्ड में कोई ,
फुटपाथ पर एक,
छोटी सी चादर मे,
पड़ा हुआ
लकडी के कुछ ,
टुकडों कों जलाकर अपनी ,
सर्द रात के कोप कों,
कुछ कम करता हुआ ,
सामने देखता हेँ,
एक कार में,
पीछे की सीट पर ,
बैठा एक पोमरियन कुत्ता,
कार के हीटर की गर्मी में,
उसे निहारता हुआ,
निकल जाता हें,
वोह फुटपाथ पर बैठा,
सिर्फ यह ही कह पाता हेँ,
अपना अपना भाग्य ....


चलते- चलते ...


रात जब आंचल से मुहँ ढखे आराम से सोती हेँ,
तब न जाने कब यह बाबरां मन उसका आंचल हटा देता हेँ,
उन्ही पल में कुछ नज़म जन्म लेती हेँ....



कुछ लम्हे जिंदिगी को छू कर ऐसें निकल जाते हें,
दिल के आंचल पे अपने निशाँ छोड़ जाते हें,
कोई लाख मिटाना चाहें उन निशाँ ए जज्बातों को,
मिटते नहीं वों पर आंचल तार- तार हो जाते हें,


वों जिंदिगी ही क्या जिसमे मोहब्बत नहीं,
वों मोहब्बत हें क्या जिस में यादे नहीं ,
वों यादे ही क्या जिस में आप नहीं,
वों आप ही क्या जिन्हें कुछ याद ही नहीं,


कुछ यादें जिंदिगी में इस कदर बस जाती हैं,
अगर भुलाना चाहों तो और याद आती हें,
लोग चले जाते हे, रास्ते बिछुडं जाते हें,
जाती नहीं वोह रह- रह कर रुलाती हें

बुधवार, 17 जून 2009

यादें... यादें... ..और यादें......



वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वो कही भी ,कैसे भी,
सामने आकार खड़ी हो जाती हें,

वों रास्ते, वों गलियारे,
वों सुन्दर अन्तःमन , नयन कजरारे,
वों उनकी खिलखिलाती हुई हँसी,
वों उनकी शरमाई हुई मुस्कान,
वों अचानक आकार सामने खडे हो जाना,
और जाते हुए अपने जाने का अहसास देते हुए जाना,
वोह साथ में कभी कभी,
बाटँ कर काफी का पीना,
वों हर कदम को, हर हालात को,
आपस में बाँटना,
न कुछ दे कर भी बहुत कुछ देना,
न कुछ कह कर भी बहुत कुछ कहना,
ये सब मौजेँ आ कर ठहर जाती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,

वों उनका साथ- साथ सिढ़िया उतरना,
और उनसे कुछ कहने की हिम्मत करना,
वों महसूस होते हुए दिल का धडकना,
वों कहते हुए होठों का सूखना,
वों आँखों मे नमी का अहसास होना ,
वों कुछ कहें, इस की उम्मीद करना,
यही सब यादे,
जिंदिगी को हिलाती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,


वों उनका हमेशा अंजान बनना,
वों जिंदिगी की कुछ बातो पर,
दुनियादारी दिखाना,
"हमे क्या " कह कर दुनियादारी समझाना,
आँखों ही आँखों में सब कुछ कहना,
पर होठों से कुछ भी न कहना,
वों उनकी आँखों की चमक ,
बहुत कुछ समझाती हँ,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,

वों चलते चलते,
वों उनका अपनापन ,
कुछ कहने की कशिश ,
वों आँखों में नमी का अहसास ,
और अचानक चले जाना,
और पीछे पीछे ,
यादो के निशाँ छोड़ जाना,
जिंदगी जैसे थम सी जाती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,


आज भी कभी रात में अचानक नीद छिटक कर कोसों दूर चली जाती हें,
और बीते हुए लम्हों की कसक आँखों में ठहर जाती हें,
और उनसे न मिलने की उम्मीद दिल को और तरसाती हें,
सचमुच उन पलो में उनकी बहुत याद आती हें,

सोमवार, 15 जून 2009

इक चाहत - इक जिन्दगी




ना दिन का चैन हें ना रातों की नींद हेँ,
हेँ तो बस तुम्हे पाने की जुस्तजू हेँ,
पल पल इक प्यारा सा अहसास हेँ,
दूर हो के भी तू मेरे दिल के पास हेँ,

हम क्या पता कि उन्हे भी कोई अहसास हेँ,
उनके भी दिल की ऐसी कोई प्यास हेँ,
इक बार देखा उनकी आँखों में तो पाया ,
उन्हें हम से ज्यादा अपने आप की तलाश हेँ,

कौन कहता हेँ कि जिंदिगी में अफसाने नहीं होंते,
किसी को चाहने के क्या , नये अंदाज़ नहीं होंते,
पर हमे इल्म तो यही हेँ कि,
उनकी चाहतों की दुनिया में,
हमारे दीदार नहीं होंते,

कहते हें दिल से दिल को राह होती हेँ,
उनकी इक मुस्कान से जिंदिगी आसान होती हेँ,
दो दिल जिन्दा रहे सकते हेँ चाहत भरी निगाहों से,
टुटा हुए दरक्थ को भी ज़मीं की तलाश होती हेँ,

इल्म = दुःख ,
दीदार = दिखाई देना,
दरक्थ = पेडं,
जुस्तजू = आरजू




चलते- चलते.....



कितने लोग हें जहाँ में जो आपके साथ को तरसते हें,
कितनी निगाहें हें जहाँ में जो आपकी इक निगाह को तरसती हें,
रंज होता हें उन्हे आपकी आँखों मे पडे सुरमे के नसीब पर ,
जो कम से कम आपकी आँखों मे तो रहा करता हें,

यह जिंदिगी के लम्हे भी कितने अजीब होते हें,
सब अपने अपने नसीब पर रोते हें,
जो अक्सर निगाहों से दूर होते हें शायद,
वही जिंदिगी में सबसे करीब होते हें,

गुरुवार, 11 जून 2009

तेरा साथ - एक अहसास


तेरा साथ
एक अह्सास हेँ जीने के लिये,
तेरी आंखो में,
उमडता सागर ,
इक प्यास हेँ पीने के लिये,
क्यों पागल हेँ मन ऐसा करने को,
प्यार की परिकाषठा की,
उच्चतम सीमा तक ,
उच्चरित होने का आकांशी हें,

तुम से मिलना, फिर बिछडना ,
पल पल फिर मिलने की चाहत रखना ,
एक जज्बा हेँ महसूस करो तो,
कुछ ही पल मे ही क्यूं ,
वो अच्छा लगने लगता हँ,
एक अन्देखा , अंजाना चेहरा,
जाना पहचाना लगता हेँ ,

पर तुम्हारे साथ तो कितनी भवरै पड़ी हुई हेँ,
कितने बंधनो की समाजिक रेखा खिची हुई हँ,
पर बाबरा हँ मन
जो न जाने इन दीवारों को
क्या नाम दूं मै ,
इस रिश्ते का,
जो मेरा दिल से होकर,
तुम्हारी चौखट तक जाता हेँ,

नाम मिट जाते हेँ,
चेहरे बदल जाते हेँ,
पर धडकन का स्पंदन,
जीवन का रंग,
क्या बदल पाता हेँ,
जिंदिगी की तपती दुपहरी में,
भागती इस भीड़ में,
तुम्हारी मुस्कान एक शाख मरुस्थल मे लगती हेँ,

पर असंभव हेँ इस संसार में,
कुछ रिश्ते ऐसे होते हेँ,
जो महसूस तो किये जा सकता हे,
इन रिश्तो की कोई उम्र नहीं होती,
इन रिश्तो का कोई समय नहीं होता

कब बनते हें ,
कैसा बनते हेँ ,
पता ही नहीं चलता,
किसी के दिल मे पलते हेँ,
किसी की आंखो में,
रास्ते बिछुडं जाते हें
पर रिश्तो के निशाँ छोड़ जाते हें,

इस लिये,
धरती सदा आकाश को ताकती हें,
और आकाश सदा धरती को,
क्या मिल पाये,
पर चाहत ही ऐसा बंधन हें,
जो बंधे हुए हें दोनों को,
न मिल कर भी मिले हुए हें,
चाहो तो छितिज से पूछ लो,

यही जज्बा हें इन आंखो का,
चाहो तो महसूस करो तो....

शनिवार, 30 मई 2009

परिवर्तन- जिंदिगी का


अनकही मे आपका स्वागत हँ, इस ब्लाक में मेरा यह पहला प्रयास हे,

अभी कुछ दिन पहले मेरी जानकारी में एक लड़की की शादी का जिक्र आया था, किसी लड़की की शादी उसकी जिंदिगी का सबसे महतंपूणँ क्षण होता हें, शादी किसी लड़की की जिंदगी को कैसे बदल देती हें, इसी को समझाने का प्रयास हें कुछ इस तरह.....

दो घंटे की वैवाहिक रस्मे,
और एक जिंदिगी बदल जाती हँ,
कल तक की बेफिक्र, हँसती, "बेटी",
इक जिम्मेदार " बहु" बन जाती हँ,

वो हँसना खेलना ,
देंर से उठना,
घंटो फ़ोन पे बाते करना,
सब मम्मी के प्यार में,
और पापा के दुलार में ,
घुल जाता हे .

वही नए परिवेश में ,
जल्दी उठना ,
सम्हल के चलना,
नया आँगन दिखलाता हेँ,

रिश्ते बदल जाते हें,
उनकी परछाँइया बदल जाती हेँ,
लाखो लोगो की चाहत,
अब सिर्फ इक की दुनिया बन जाती हेँ,

यह सात फेरे का बंधन कितना कुछ कर जाता हेँ,
नये मायने, नये रिश्ते,
नयी परिभाषा दे जाता हेँ,

पीछा मुड के देखो तो कितनी यादें समायी होती हेँ ,
कितनी बाते ,कितने रिश्ते,
कितनी खुशियाँ बितायी होती हेँ ,

कुछ अनकहे रिश्ते भी होते हेँ,
जो परिभाषित नहीं होते,
रह जाती हँ उन रिश्तों की यादे,
इक कसक सी दिल में उठती हेँ,


वाह " नारी " यह तुम ही से संभव हँ,
तभी तो तुम्हे "शक्ति" कहा जाता हें,


काया पतली दुबली हुई तो क्या हुआ,
पर मजबूत मानसिकता दर्शाता हेँ.