मंगलवार, 30 जून 2009

क्यों ..


क्यों किसी से इतना प्यार हो जाता हेँ ,
क्यों किसी के बिना जीना दुश्वार हो जाता हेँ
पल पल तरसते हेँ उनकी एक निगाह को,
क्यों किसी अजनबी पे एतबार हो जाता हेँ,

अब पता चला कि प्यार क्या होता हेँ,
क्यों आंखे तरसती हेँ उनके एक दीदार को,
क्यों धरती ताकती हेँ अस्मां को,
क्यों नदिया मिलती हेँ सागर में ,
क्यों जब भी तनहा होते हेँ,
उन्हें हम याद करते हेँ,

मत जाओ हम छोड़ के कि
शायद हम जी न पाए,
हम यह भी नहीं कहे सकते
कि आप अ़ब पराये हो,
पढना चाहों तो हमारी आंखे
पढ़ लो जो शायद आपको
दास्ताँ - ए- दिल ब्यां कर दे,

कितने मुश्किल थे वोह पल,
जिनमे अहसास हुआ कि ,
आप दूर चले गए हो,
कितने कठिन थे वोह लम्हें
जो कहे रहे थे कि
अब आप पराये हो
इस गैर जहाँ में मिलना
जरुरी तो नहीं,
यह सपने तो मेरे
अपने हेँ ,
आकर मिल जाया करो..

रविवार, 28 जून 2009

कुछ पल ....


जो दिल में रहते हें वो जुदां नहीं होते,
कुछ अहसास लफ्जों में ब्यां नही होते,
कितने बार सोचा उन्हें न याद करे हम,
पर वो जब याद आते हें ,बहुत यादे आते हेँ

यह शर्मीली मुस्कान हमारी कमजोरी हेँ,
आप समझ न सके यह हमारी मज़बूरी हेँ,
हम नहीं समझतें आपकी इस खामोशी को,
आपकी खामोशी को भी जुबान जरुरी हेँ,

कुछ राज किसी को बताये नहीं जाते,
कुछ ज़ख्म किसी तो दिखाए नहीं जाते,
कितने यादे आते हेँ कैसे बताये आपको,
कुछ राज होठों पर लाये नहीं जाते,

शनिवार, 27 जून 2009

वोह लम्हें ... वोह लम्हें.... वोह लम्हें .....




वोह लम्हें,
जब शून्य सी खामोशी में,
कुछ जज्बातों ने,
उचक कर ,
अपने चाँद के मन को
छूने कीं
कोशिश कीं थी,
और चाहा था ,
उस भीगती , सुनहरी,
चांदनी के प्यार कीं,
कुछ बुँदों
का अहसास ,
अपनी अगली जिंदिगी ,
के आंचल में ,

वोह लम्हें,
आज भी जिन्दा हेँ,
अपने माझी कीं
आँखों कीं चमक
को पढनें में,
उसके होठों कीं
खामोशी को ,
समझनें कीं कोशिश में,
जिंदिगी के
इक मोड पर,
खडें हुए,
इस इन्तजार में,
काश उन्होंने ,
एक बार तो कहा होता,
एक बार तो कहा होता,

वोह लम्हें...

शुक्रवार, 19 जून 2009

कभी - कभी…..


कभी - कभी,
रात जब पूरे उफांन पर होती हेँ,
और दुनिया नींद के आगोश में सोती हेँ,
कुछ
अलसाई सी , मुरझाई सी ,
आंखो में
एक खबाब ......,
जागा सा मिलता हेँ,
वोह
जितनी दूर,
यादो को, समुंदर की लहरों में,
डुबो के आता हेँ,
सुबह,
मुई यादे ,
तकिये के सिरहाने ,
मिलती हेँ,



कभी - कभी,
सर्द रात में,
जब हड्डियों को ठिठुरने बाली,
ठण्ड में कोई ,
फुटपाथ पर एक,
छोटी सी चादर मे,
पड़ा हुआ
लकडी के कुछ ,
टुकडों कों जलाकर अपनी ,
सर्द रात के कोप कों,
कुछ कम करता हुआ ,
सामने देखता हेँ,
एक कार में,
पीछे की सीट पर ,
बैठा एक पोमरियन कुत्ता,
कार के हीटर की गर्मी में,
उसे निहारता हुआ,
निकल जाता हें,
वोह फुटपाथ पर बैठा,
सिर्फ यह ही कह पाता हेँ,
अपना अपना भाग्य ....


चलते- चलते ...


रात जब आंचल से मुहँ ढखे आराम से सोती हेँ,
तब न जाने कब यह बाबरां मन उसका आंचल हटा देता हेँ,
उन्ही पल में कुछ नज़म जन्म लेती हेँ....



कुछ लम्हे जिंदिगी को छू कर ऐसें निकल जाते हें,
दिल के आंचल पे अपने निशाँ छोड़ जाते हें,
कोई लाख मिटाना चाहें उन निशाँ ए जज्बातों को,
मिटते नहीं वों पर आंचल तार- तार हो जाते हें,


वों जिंदिगी ही क्या जिसमे मोहब्बत नहीं,
वों मोहब्बत हें क्या जिस में यादे नहीं ,
वों यादे ही क्या जिस में आप नहीं,
वों आप ही क्या जिन्हें कुछ याद ही नहीं,


कुछ यादें जिंदिगी में इस कदर बस जाती हैं,
अगर भुलाना चाहों तो और याद आती हें,
लोग चले जाते हे, रास्ते बिछुडं जाते हें,
जाती नहीं वोह रह- रह कर रुलाती हें

बुधवार, 17 जून 2009

यादें... यादें... ..और यादें......



वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वो कही भी ,कैसे भी,
सामने आकार खड़ी हो जाती हें,

वों रास्ते, वों गलियारे,
वों सुन्दर अन्तःमन , नयन कजरारे,
वों उनकी खिलखिलाती हुई हँसी,
वों उनकी शरमाई हुई मुस्कान,
वों अचानक आकार सामने खडे हो जाना,
और जाते हुए अपने जाने का अहसास देते हुए जाना,
वोह साथ में कभी कभी,
बाटँ कर काफी का पीना,
वों हर कदम को, हर हालात को,
आपस में बाँटना,
न कुछ दे कर भी बहुत कुछ देना,
न कुछ कह कर भी बहुत कुछ कहना,
ये सब मौजेँ आ कर ठहर जाती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,

वों उनका साथ- साथ सिढ़िया उतरना,
और उनसे कुछ कहने की हिम्मत करना,
वों महसूस होते हुए दिल का धडकना,
वों कहते हुए होठों का सूखना,
वों आँखों मे नमी का अहसास होना ,
वों कुछ कहें, इस की उम्मीद करना,
यही सब यादे,
जिंदिगी को हिलाती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,


वों उनका हमेशा अंजान बनना,
वों जिंदिगी की कुछ बातो पर,
दुनियादारी दिखाना,
"हमे क्या " कह कर दुनियादारी समझाना,
आँखों ही आँखों में सब कुछ कहना,
पर होठों से कुछ भी न कहना,
वों उनकी आँखों की चमक ,
बहुत कुछ समझाती हँ,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,

वों चलते चलते,
वों उनका अपनापन ,
कुछ कहने की कशिश ,
वों आँखों में नमी का अहसास ,
और अचानक चले जाना,
और पीछे पीछे ,
यादो के निशाँ छोड़ जाना,
जिंदगी जैसे थम सी जाती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,
वों यादे,
बहुत याद आती हें,


आज भी कभी रात में अचानक नीद छिटक कर कोसों दूर चली जाती हें,
और बीते हुए लम्हों की कसक आँखों में ठहर जाती हें,
और उनसे न मिलने की उम्मीद दिल को और तरसाती हें,
सचमुच उन पलो में उनकी बहुत याद आती हें,

सोमवार, 15 जून 2009

इक चाहत - इक जिन्दगी




ना दिन का चैन हें ना रातों की नींद हेँ,
हेँ तो बस तुम्हे पाने की जुस्तजू हेँ,
पल पल इक प्यारा सा अहसास हेँ,
दूर हो के भी तू मेरे दिल के पास हेँ,

हम क्या पता कि उन्हे भी कोई अहसास हेँ,
उनके भी दिल की ऐसी कोई प्यास हेँ,
इक बार देखा उनकी आँखों में तो पाया ,
उन्हें हम से ज्यादा अपने आप की तलाश हेँ,

कौन कहता हेँ कि जिंदिगी में अफसाने नहीं होंते,
किसी को चाहने के क्या , नये अंदाज़ नहीं होंते,
पर हमे इल्म तो यही हेँ कि,
उनकी चाहतों की दुनिया में,
हमारे दीदार नहीं होंते,

कहते हें दिल से दिल को राह होती हेँ,
उनकी इक मुस्कान से जिंदिगी आसान होती हेँ,
दो दिल जिन्दा रहे सकते हेँ चाहत भरी निगाहों से,
टुटा हुए दरक्थ को भी ज़मीं की तलाश होती हेँ,

इल्म = दुःख ,
दीदार = दिखाई देना,
दरक्थ = पेडं,
जुस्तजू = आरजू




चलते- चलते.....



कितने लोग हें जहाँ में जो आपके साथ को तरसते हें,
कितनी निगाहें हें जहाँ में जो आपकी इक निगाह को तरसती हें,
रंज होता हें उन्हे आपकी आँखों मे पडे सुरमे के नसीब पर ,
जो कम से कम आपकी आँखों मे तो रहा करता हें,

यह जिंदिगी के लम्हे भी कितने अजीब होते हें,
सब अपने अपने नसीब पर रोते हें,
जो अक्सर निगाहों से दूर होते हें शायद,
वही जिंदिगी में सबसे करीब होते हें,

गुरुवार, 11 जून 2009

तेरा साथ - एक अहसास


तेरा साथ
एक अह्सास हेँ जीने के लिये,
तेरी आंखो में,
उमडता सागर ,
इक प्यास हेँ पीने के लिये,
क्यों पागल हेँ मन ऐसा करने को,
प्यार की परिकाषठा की,
उच्चतम सीमा तक ,
उच्चरित होने का आकांशी हें,

तुम से मिलना, फिर बिछडना ,
पल पल फिर मिलने की चाहत रखना ,
एक जज्बा हेँ महसूस करो तो,
कुछ ही पल मे ही क्यूं ,
वो अच्छा लगने लगता हँ,
एक अन्देखा , अंजाना चेहरा,
जाना पहचाना लगता हेँ ,

पर तुम्हारे साथ तो कितनी भवरै पड़ी हुई हेँ,
कितने बंधनो की समाजिक रेखा खिची हुई हँ,
पर बाबरा हँ मन
जो न जाने इन दीवारों को
क्या नाम दूं मै ,
इस रिश्ते का,
जो मेरा दिल से होकर,
तुम्हारी चौखट तक जाता हेँ,

नाम मिट जाते हेँ,
चेहरे बदल जाते हेँ,
पर धडकन का स्पंदन,
जीवन का रंग,
क्या बदल पाता हेँ,
जिंदिगी की तपती दुपहरी में,
भागती इस भीड़ में,
तुम्हारी मुस्कान एक शाख मरुस्थल मे लगती हेँ,

पर असंभव हेँ इस संसार में,
कुछ रिश्ते ऐसे होते हेँ,
जो महसूस तो किये जा सकता हे,
इन रिश्तो की कोई उम्र नहीं होती,
इन रिश्तो का कोई समय नहीं होता

कब बनते हें ,
कैसा बनते हेँ ,
पता ही नहीं चलता,
किसी के दिल मे पलते हेँ,
किसी की आंखो में,
रास्ते बिछुडं जाते हें
पर रिश्तो के निशाँ छोड़ जाते हें,

इस लिये,
धरती सदा आकाश को ताकती हें,
और आकाश सदा धरती को,
क्या मिल पाये,
पर चाहत ही ऐसा बंधन हें,
जो बंधे हुए हें दोनों को,
न मिल कर भी मिले हुए हें,
चाहो तो छितिज से पूछ लो,

यही जज्बा हें इन आंखो का,
चाहो तो महसूस करो तो....