सोमवार, 27 जुलाई 2009

जन्मपत्री...


वों बहुत परेंशां थे ,
अपने लड़के की
जिंदिगी के भविष्य के वारें मे,
गर उन्होंने लड़के की जिंदिगी
खोजतें वक़्त
करीब सौ से ज्यादा
प्रपोजलं में
अन्य चीजो
के अलावा
जन्मपत्री को तवज्जौं दी,
नतीजन...
आज दोनों शखसं
जिंदिगी के
दोनों पाटों
पर खड़े हुऐ
अपनी अपनी
जिंदिगी के
फलसफे बांच रहे है
और बीच मे बह रही है
उन दोनों की
जन्मपत्री...


चलते- चलते...

न दोस्ती मिली न वफ़ा मिली,
न जानें क्यों यह जिंदिगी हमसे खफा मिली,
कांधे पर लादे हुएं इसको हम तो ढ़ोतें जाते है,
वह कौन सी गैरतं थी जिसकी हमको सजा मिली ,

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

खेल..



जिंदिगी का खेल,
अजीब खेल,
सब खेलते हँ,
कुछ जीतते हँ,

अपनी निगाहं में,
लोंगो कि निगाहं में,
समाज कि निगाहं में,

कुछ हारते हँ,

जो जीतते हँ
अपनी दुनिया सजातें हँ,
अपनी रागिंनी पर दुनिया को
नचाते हँ,

पर वों जो हारते हँ,
वों अपने आंगन को सवारते हँ,
उनके लिये कोई नहीं रोता,
उनके लिये किसी के दिल का कोई
कोना नहीं धडकता,

वों बन जाते हँ,
अंतहीन , अंतर्मुखी सामान,
और जिंदिगी की भीड़ मे
अकेलेपन के निशां,
वो "आम आदमी"
बन कर चले
जाते हँ,
और गुमनामी की
जिंदिगी बिता जाते हँ,
क्यों कि
इस बेत्कलुफ़, बेजुबांन दुनिया मे,
प्रणाम उगतें सूरज को ही होता हँ,
प्रणाम उगतें सूरज को ही होता हँ,

बुधवार, 15 जुलाई 2009

खामोशी...


(१)
कुछ लफ्ज़
जो मैंने खुदं ही
खोज लिए थे
तुम्हारी खामोशी
में ,

कुछ रिश्ते
जो मैंने खुदं ही
बुन लिए थे
तुम्हारी आँखों की चमक
में ,

कुछ सुर
जो मैंने खुदं ही सुन लिए थे
जो तुमने कहे हीं नहीं
थे

सचमुच...
यह
कभी कभी
के अच्छे
इत्ते फांक

अभी दफना के
लौटा हूँ

पर यह यादे
मेरी
नासमझी
पर हसतीं है


(२)
छोड़ कर
जब तुम
अपनी मंजिल की तरफ
जैसें जैसें
कदम
बढाओगें
कुछ यादे
हमारी जिंदगी के
साये से
लिपट-लिपट
कर सिर्फ यही पूछेगीं
कि बता
मेरी खता क्या है
मेरी खता क्या है

बुधवार, 8 जुलाई 2009

रुख़सत...



कुछ लोग,
जो आपके वर्तमान,
से रुखसत हो जाते है,
पर अतीत को समातें हुएं
यादो में चले आते हें,
वोह
हर पल ,
हर जहां मे
ऐसे समां जाते हें,
कि
दिल की ढ़ियोड़ीं से,
चाह कर भी,
रुखसत नहीं हो पातें हें,
वही चलते चलते,
कुछ मोड,
जिंदिगी के,
उन यादो को
गुजरते देख कर
यही कहं पाते हें,
कि
क्यों उन्हें,
रुख़सत होने
के लिए
मेरी ही गली मिली.

रुख़सत = विदा

शनिवार, 4 जुलाई 2009

स्त्री...स्त्री...स्त्री…


क्या जीवन हें स्त्री का
जो टुकडो में बटां होता है ,
पत्नी , बेटी और,
माँ के रूप में,
बार बार परिलषित होता हें,

अपने आधे जीवन में वह,
बाबुल की बगिया महकाती है,
उसकी एक हँसी ,
उसकी एक मुस्कान,
घर की खुशिया बढाती है

पापा की वोह लाडली होती है,
मम्मी की वोह दुलारी होती है
हँसना , खेलना ,
सखियों से बतियाना ,
बेंफिक्र , अलमस्त सी होती है,

और एक दिन यह दुनिया छोड़ के,
वोह किसी और की चाहत बनती हें,
लाखो सपने, लाखो वादें
छोड़ के वोह,
किसी और का
आंगन महकाती है,

कुछ नहीं लेती वोह किसी से,
कच्ची मिटटी सी होती हें,
प्यार की पौध को
दिल में लगा के,
सेंज़ पिया की संवारती है,

यह टुकडों में बटां जीवन ही,
उसकी जनम भर की पूँजी होता है,
कभी बेटी , कभी पत्नी,
कभी माँ बन के,
वोह जीवन पुरुष का
सार्थंक करती है,

ओंस की बूदँ सी होती है स्त्री,
हर रूप में ढल जाती है,
स्पर्श कोमल हो
तो नीर सी बहेंगी,
और खुरदरा हो तो
पत्थर सी बन जाती है स्त्री,

विधि का विधान है यहीं,
जीवन की नियति है यहीं,
पुरुष तो बस एक पुतला है मानो ,
उसका जीवन,
कभी बेटी बन कर,
कभी पत्नी बन कर,
कभी माँ बन कर,
संवारती है स्त्री,

यही जीवन है स्त्री का,
जो टुकडो में बटां होता है,
यही जीवन है स्त्री का,
जो टुकडो में बटां होता है,