गुरुवार, 24 सितंबर 2009

कुछ....



कुछ तुम्हारी यादों के तसुब्बर ना हो,
कुछ तुम से मिलने की चाहत ना हो,
कुछ बीते हुएं लम्हों की कसक साथ ना हो,
कुछ मुकद्दर का गम- ए- इजहार ना हो
कुछ तन्हाई में यादों का मंजर ना हो,
कुछ तुम्हारी इजहार - ए - मोहब्बत की तमन्ना ना हो,
कुछ यह रिश्तो की सिर्फ रस्म अदायगी ना हो,
कुछ घिसकती, सिसकती जिंदिगी की आहटं ना हो,
तो
यह दिल खाली- खाली सा लगता है,
और
यह जिंदिगी भरी- भरी सी लगती है,
वाह रे इश्क,
यह तेरी ही कजां है कि,
सब कुछ लुटा के तुझ पर ही,
तुझ से ही मिलने की आस किया करते है
जिस न तुम समझ सकें
न हम समझ सकें,
जिंदिगी सिर्फ फानुसं की तरह
सिर्फ जलती ही रही,
सिर्फ राख़ के ढेर पर
बैठे इस इन्तजारं मे
कुछ तो
कभी तो
तुम भी कुछ कहोगें

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