मंगलवार, 1 सितंबर 2009

खट्टी - मीठी


ना मालूम था कि
कुछ दौर
जिंदिगी में ऐसें भी आयेंगें
कि
कुछ दीवारे उन दोनों
के दरमिंया ऐसी बढती जायेंगी
जैसें पूनम का चाँद
जिंदिगी सिर्फ
रस्म अदायगी ही भर रह जायेंगी
अपनी घिसी- पिटी
लकीरों पे
रेंगती हुई
सिसकती हुई
जिसमे न खुशी है
न अपनापन
है तो बस
सूनी सी
निस्तभ खामोशी,
और
आकाश को
चीरता वीरानापन
पर
जिंदिगी तो मात्र जिंदिगी ही है
कुछ की खट्टी
कुछ की मीठी

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