शनिवार, 29 अगस्त 2009

बस यूं ही...


बस यूं ही
कई बार
मेरें कदम जिंदिगी के
कुछ मोड पर यूं ही रुक जातें है
यह सोच कर
कि
शायद कही दिख जाओ कही,
कई बार तुम्हारी कालोनी के बाहर
यूं ही खडा हो जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद कार चलाती दिख जाओ कही,

कई बार उन साइबर कैफे पर यूं ही रुक जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद कही चैट करती दिख जाओ कही,
उन दिनों चैट- चैट मे शोर्ट इंग्लिश सीखी थी तुमसे
जिसे एस-ऍम-एस अंग्रजी का नाम दिया था तुमने,

कई बार साडीयौ की शॉप पर बस यूं ही रुक जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद " मेरा वाला पिंक" खोजती दिख जाओ कही,
उन दिनों वेस्टर्न ड्रेस के रूटीन के बीच मे
काली ड्रेस पहन कर
खुले बालो मे चहकती फिरती थी,
आज खामोशी की कालिमा सुनाई देंती है,

कई बार ज्वेल्लर्स की शॉप पर बस यूं ही खडा हो जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद ज्वल्लेरी पसंद करती दिख जाओ कही,
गोल्ड तुमको बहुत पसंद था न...
आज कल सुनहरी चमक भी धुधली दिखाई देंती है

कई बार बाज़ार मे बस यूं ही खडा हो जाता हूँ
यह सोच कर
कि
शायद कही गोलगप्पे खाती दिख जाओ कही
उन दिनों तेज मिर्ची की चाट खा कर
बार बार पानी पीती फिरती थी

क्या अब भी वैसी ही हो.....

मेरा सब कुछ तो वक़्त के सुमंदर मे
डूब गया
रहा गयी है तो बस
तन्हाई के रेत पर तुम्हारी यादो के निशां...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें