शनिवार, 1 अगस्त 2009

हँसरतें....



न जाने कब ये नजरें उनसे मिली,
न चाहतें हुएं कुछ हँसरतें दिल में खिली,

दिमाग ने कहा..

इन हँसरतों का कोई मोल नहीं,
जो तुने कह दिया वोह उन्होंने सुना ही नहीं,


पर दिल ने कहा...

इन हँसरतों पे मेरा जोर ही नहीं,
बहुत कोशिश की मिटाने की पर मिट न सकी,
इस में रंग की लालिमा
मेरें खुद के लहु ने दी है,
मेरें खुदं के किसी कोने मे यह
पली बढ़ी है,
कब इनके पर लग गयें
पता ही न चला,
कब यह इनमे उनका
पलछिन देखने लगीं
पता ही न चला,


दिमाग ने कहा..

लगीं को कौन मिटा सकता है,
हालत इन हँसरतों की उन्हे कौन बता सकता है,
यह खामोश लफ्ज़ उन्हे कौन सुना सकता है,
जब कि
तेंरीं इस हालत का उन्हे कोई इल्म ही नहीं,


पर फिर कहता हूँ..

छोड़ सकें तो समुंदर में डुबो आ,
आग पानी मे भी लगे तो लगा आ,


क्यों कि,

यह हँसरतें कब तेरी चाहत बन जायेंगी,
इस दिल को ता उम्र का रोग दे जायेंगी,
तन्हाई में उनकी यादे बन सतायेंगी,
आँखों के रास्ते
बार बार अपनां अहसास दिलायेंगी,


पर दिल न माना.......

आज उनकें रास्ते पर अपनी कब्र में दफ़न बैठां है


हँसरत - इच्छा

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