सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

यू ही ...कुछ लम्हे ...


(१)
यह चार दिनों की जिंदिगी...
जिस मे कुछ तुम्हारी यादे,
इक धरकता दिल..
न उम्मीदी की किरण,
और
इक अंतहीन इंतजार...

(२)
यह शायद प्यार ही था ...
जो आज भी खीच लाता है
उसकी
आँखों मे नमी का अहसास ..
किसी महफ़िल मे तेरा जिर्क
सुनने का बाद..

(३)
कुछ बरबादिया इस
कदर उसके दामन
मे आ बैठी
कि
बस तुम से दिल लगा बैठे
बाकी अपने आप मुकम्मल ही गयी..

(४)
क्यू गाहे बगाहे
पालते हो
यह हसरते
कि
उनके
इश्क का दीदार हो जाये
यह आजकल कि हवा है जानशी..
जो मुसल्मा को भी काफ़िर बना जाये ...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें