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खेल..
जिंदिगी का खेल,
अजीब खेल,
सब खेलते हँ,
कुछ जीतते हँ,
अपनी निगाहं में,
लोंगो कि निगाहं में,
समाज कि निगाहं में,
कुछ हारते हँ,
जो जीतते हँ
अपनी दुनिया सजातें हँ,
अपनी रागिंनी पर दुनिया को
नचाते हँ,
पर वों जो हारते हँ,
वों अपने आंगन को सवारते हँ,
उनके लिये कोई नहीं रोता,
उनके लिये किसी के दिल का कोई
कोना नहीं धडकता,
वों बन जाते हँ,
अंतहीन , अंतर्मुखी सामान,
और जिंदिगी की भीड़ मे
अकेलेपन के निशां,
वो "आम आदमी"
बन कर चले
जाते हँ,
और गुमनामी की
जिंदिगी बिता जाते हँ,
क्यों कि
इस बेत्कलुफ़, बेजुबांन दुनिया मे,
प्रणाम उगतें सूरज को ही होता हँ,
प्रणाम उगतें सूरज को ही होता हँ,
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