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स्त्री...स्त्री...स्त्री…
क्या जीवन हें स्त्री का
जो टुकडो में बटां होता है ,
पत्नी , बेटी और,
माँ के रूप में,
बार बार परिलषित होता हें,
अपने आधे जीवन में वह,
बाबुल की बगिया महकाती है,
उसकी एक हँसी ,
उसकी एक मुस्कान,
घर की खुशिया बढाती है
पापा की वोह लाडली होती है,
मम्मी की वोह दुलारी होती है
हँसना , खेलना ,
सखियों से बतियाना ,
बेंफिक्र , अलमस्त सी होती है,
और एक दिन यह दुनिया छोड़ के,
वोह किसी और की चाहत बनती हें,
लाखो सपने, लाखो वादें
छोड़ के वोह,
किसी और का
आंगन महकाती है,
कुछ नहीं लेती वोह किसी से,
कच्ची मिटटी सी होती हें,
प्यार की पौध को
दिल में लगा के,
सेंज़ पिया की संवारती है,
यह टुकडों में बटां जीवन ही,
उसकी जनम भर की पूँजी होता है,
कभी बेटी , कभी पत्नी,
कभी माँ बन के,
वोह जीवन पुरुष का
सार्थंक करती है,
ओंस की बूदँ सी होती है स्त्री,
हर रूप में ढल जाती है,
स्पर्श कोमल हो
तो नीर सी बहेंगी,
और खुरदरा हो तो
पत्थर सी बन जाती है स्त्री,
विधि का विधान है यहीं,
जीवन की नियति है यहीं,
पुरुष तो बस एक पुतला है मानो ,
उसका जीवन,
कभी बेटी बन कर,
कभी पत्नी बन कर,
कभी माँ बन कर,
संवारती है स्त्री,
यही जीवन है स्त्री का,
जो टुकडो में बटां होता है,
यही जीवन है स्त्री का,
जो टुकडो में बटां होता है,
tukdo me bata to hota hai par har tukda pyaara bhi to hota hai bahut
जवाब देंहटाएंIs sarthak rachna ke liye badhai swikaren.
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