शनिवार, 27 जून 2009

वोह लम्हें ... वोह लम्हें.... वोह लम्हें .....




वोह लम्हें,
जब शून्य सी खामोशी में,
कुछ जज्बातों ने,
उचक कर ,
अपने चाँद के मन को
छूने कीं
कोशिश कीं थी,
और चाहा था ,
उस भीगती , सुनहरी,
चांदनी के प्यार कीं,
कुछ बुँदों
का अहसास ,
अपनी अगली जिंदिगी ,
के आंचल में ,

वोह लम्हें,
आज भी जिन्दा हेँ,
अपने माझी कीं
आँखों कीं चमक
को पढनें में,
उसके होठों कीं
खामोशी को ,
समझनें कीं कोशिश में,
जिंदिगी के
इक मोड पर,
खडें हुए,
इस इन्तजार में,
काश उन्होंने ,
एक बार तो कहा होता,
एक बार तो कहा होता,

वोह लम्हें...

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